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सुमित्रानंदन पंत रचना संचयन

कुमार विमल

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :484
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2150
आईएसबीएन :9789387567153

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प्रस्तुत है रचना संचयन...

Sumitranandan Pant Rachna Sanchayan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीसवीं शताब्दी के भारतीय अंतस् और मानस को समझने के लिए महाकवि पंत के वृहद रचनाकाश को जानना बहुत आवश्यक है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, ज्योत्स्ना, ग्राम्या, युगांत, उत्तरा, अतिमा, चिदंबरा (भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित) कला और बूढ़ा चाँद (साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत) तथा लोकायतन जैसे प्रबंध-काव्य के रचयिता पंत प्रगीत प्रतिभा के पुरोगामी सर्जक तथा कला-विदग्ध कवि के रूप में, व्यापक पाठक वर्ग में समादृत रहे हैं, यद्यपि उन्होंने नाटक, एकांकी, रेडियो-रूपक, उपन्यास, कहानी आदि विधाओं में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। पंत जी की समस्त रचनाएँ भारतीय जीवन की समृद्ध सांस्कृतिक चेतना से गहन साक्षात्कार कराती हैं। उन्होंने खड़ी बोली की प्रकृति और उसके पुरुषार्थ, शक्ति और सामर्थ्य की पहचान का अभिमान ही नहीं चलाया, उसे अभिनंदित भी किया। उनके प्रकृति वर्णन में हृदयस्पर्शी तन्मयता, उर्मिल लयात्मकता और प्रकृत प्रसन्नता का विपुल भाव है।


भूमिका

छायावादी चतुष्टय के कवियों के बीच सुमित्रानंदन पंत का रचना-काल सर्वाधिक विस्तृत था। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ-वर्ष (20 मई, 1900 ई.) में जन्मे पंत जी पंद्रह-सोलह साल की उम्र से यानी सन् 1915-16 ईस्वी से अपने मृत्यु वर्ष (28 दिसम्बर, 1977) तक लिखते रहे। इस तरह साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में ये लगभग छह दशकों तक सक्रिय रहे।

 छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने हार नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार हैं। इन्होंने मुक्तक, लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, उपन्यास, कहानी इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन तथा सत्यकाम—जैसे वृहत् महाकाव्य भी लिखें हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि से इनके द्वारा संपादित रूपाभ पत्रिका (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है।

रचनाओं की विपुलता के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आनेवाला मानव निश्चिय ही न पूर्व का होगा, न पश्चिम का।’’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म, अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत के लेखन—चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’—पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।

महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स, श्री अरविन्द और अनेक विकासवादी-आशावादी दार्शनिकों से समय-समय पर प्रभावित-प्रेरित पंत एक ‘सर्वसमन्वयवादी’, ‘लोक’-पक्षधर दृष्टि रखते थे, अपने समकालीन हिन्दी कवियों की तुलना में ये अधिक पंथ-निरपेक्ष थे और
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1.    चिदंबरा की भूमिका, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 34,

रूढ़िग्रस्त मध्यकालीनता-वाद के विरुद्ध एक तर्क-युक्त ‘सोच’ रखते थे। शायद, इन सभी कारणों के एकजुट हो जाने से इनका कवि-मन कबीर की तरह रोता रहता था—‘मन कबीर-सा करता रोदन।’ इतना ही नहीं, छायावाद का अग्रणी कवि होते हुए इन्होंने प्रौढ़ि प्राप्त कर लेने के बाद अपने को ‘कबीर पंथी कवि’ कह दिया है—

 

सूक्ष्म वस्तुओं से चुन चुन स्वर
संयोजित कर उन्हें निरंतर
मैं कबीर-पंछी कवि
भू जीवन पट बुनता नूतन !


यह दूसरी बात ही कि पंत जी की प्रकृति-कविताएँ इनकी अन्य प्रकार की कविताओं की तुलना में अधिक टिकाऊ होंगी। इनकी प्रकृति-कविताओं की कालोत्तीर्ण विशेषता को, जिसका आधार कूर्मांचल, कत्यूर की घाटी, हिमालय और उसके प्रांतर का सौंदर्य है, रूस के साहित्य-विवेचकों ने भी लक्षित किया था। इसलिए जब इनकी चुनी हुई प्रकृति-कविताओं के रूसी अनुवाद का संकलन ‘गिमलाइस्कया तेत्राज़’ के नाम से मास्को से सन् 1965 ईस्वी में प्रकाशित हुआ, तब उसके प्रत्येक पृष्ठ को निकोलस रोरिक के हिमालय से संबंधित विभिन्न चित्रों की प्रतिकृति से मंडित कर मुद्रित किया गया। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पंत की प्रकृति-कविताओं के सन्दर्भ में चित्रकार ब्रूस्टर के प्रकृति-चित्रों पर भी विचार किया जाना चाहिए। वो वृद्ध अमरीकी चित्रकार मिस्टर ब्रूस्टर, मानों अल्मोड़ा में बस गए थे और उन्होंने वहाँ की पहाड़ियों तथा हिम-शिखरों की अनेक रंगमुखर छायाकृतियाँ अंकित की थीं, जो पंत जी को बहुत प्रिय थीं।

यह धारणा निभ्रान्त प्रतीत होती है कि कवि के रूप में पंत की अमरता इनकी प्रकृति-कविताओं में निहित है—ठीक उसी तरह, जिस तरह चित्रकार आइवाजेव्स्की और शॉविन्स्की की अमरता उनके प्रकृति-चित्रों में निहित है या श्रमजीवी उड़िया कवि गंगाधार मेहेर की अमरता उनके ग्रामाँचल संबलपुर की नैसर्गिक छवि को अंकित करने वाली उनकी प्रकृति-कविताओं पर निर्भर है। पंत की नवीन सगुणवादी कविताओं या उनके चेतना-काव्य को अनेक आलोचक ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की तरह शुभैषणा-काव्य या स्वस्ति-काव्य दूसरे शब्दों में मनुष्यता का सील-पथ-निरूपक काव्य मानते हैं और इनके छायावादोत्तर विचार-काव्य को श्री अरविन्द-दर्शन का ‘पद्यीकरण’ कहते हैं, किन्तु इनकी रुचि प्रकृति का स्वर्ण-काव्य अद्यपर्यन्त खड़ी बोली के सम्पूर्ण प्रकृति-काव्य की शिखर-छवि है। पंत का प्रकृति-बोध केवल रूप-रंग की दृश्य सीमाओं तक
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1.    शंखध्वनि, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 101.

सीमित नहीं था। रंग-रूप की सीमाओं का अतिक्रमण कर इन का प्रकृति-बोध सूक्ष्मतर गंध-साधना तक गया था। इसलिए पंतजी द्वारा रचित प्राकृतिक साहचर्य की कविताओं में केवल भौतिक प्रकृति का रूप-चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उसका ‘भाव’-चैतन्य भी मिलता है। फलस्वरूप, इनके प्रकृति काव्य में शोभना प्रकृति के ‘रूप’ और ‘भाव’—दोनों का रागात्मक समेकन है। इन्हें यह ज्ञात है कि जब भूत-जगत मनोजगत के सन्निकर्ष में आता है, तब दृष्टि को प्रकृति-बोध होता है।

मनोजगत की निष्क्रिय अवस्था में प्रकृति के उपकरण केवल भूतात्मक संगठन बन जाते हैं। अतः इन्होंने अपने प्रकृति काव्य में प्रकृति को मनोरोग से रंजित कर उपस्थित किया है और प्रकृति के चेतन सौन्दर्य में मानव-चेतना की स्वर-संगति को भी मिला दिया है।

पंत जी ने सन् 1972 ईस्वी में मेरे संकलित-संपादित अपनी उत्कृष्ट प्रकृति कविताओं के संग्रह गंधवीथी के ‘दो शब्द’ में प्रकृति—संबंधी अपनी मुख्य मान्यता को सूत्र-रूप में व्यक्त करते हुए लिखा था—‘‘प्रकृति एक ही है। मैं प्रारंभ में उसके बाह्य रूप पर, वानस्पतिक जगत के सौन्दर्य पर मुग्ध हुआ था और उसी से प्रेरणा ग्रहण कर मैंने प्रकृति-काव्य की रचना की थी। आगे चलकर मुझे प्रकृति के आंतरिक रूप पर भी दृष्टि मिली, जो मनुष्य तथा मनुष्य-जीवन में अधिक पूर्णता से अभिव्यक्त हुआ है। यदि सौन्दर्य-काव्य में रूप-सौन्दर्य को प्रधनाता मिली है, तो मेरे चेतना-काव्य में भाव-सौन्दर्य का निरीक्षण-परीक्षण करने का प्रयत्न हुआ है, जिसके गहरे मूल मानव-सभ्यता तथा संस्कृति के इतिहास में फैले हुए हैं।’’1

पंत जी प्रकृति को एक दार्शनिक प्रत्यय भर नहीं मानकर उसकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करते थे, जिसमें इन्हें एक सार्वभौम सामंजस्य की परिपूर्णता के साथ ही किसी दिव्य सत्ता का बोध होता था—मानो, प्रकृति इनके लिए बहिर्जगत में ‘ऋत’ की दृश्यमान प्रतिकृति बन गई है और वह कवि-दृष्टि में केवल ‘पुद्गल-पुंज’ या भौतिक तत्त्वों का आलम्बन बनाया है। इस राग-वृत्ति के अन्तर्गत अन्य मानवीय भावनाओं के साथ ही पूजा-भाव भी गतार्थ है। इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि प्रकृति के प्रति कवि का राग ‘नागर’ राग है, ‘आरण्यक’ राग नहीं।

साथ ही, लिश्लेषण और मूल्यांकन की दृष्टि से यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि वीणा में संकलित पंत की प्रकृति-कवितकाएँ प्रकृति के साथ साक्षात् साहचर्य के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वीणा की प्रकृति-कविताएँ सने 1918-20 ईस्वी की अवधि में कूर्मांचल के पहाड़ी परिवेश में रहते समय लिखी गई हैं, जबकि पल्लव और उसके परवर्ती संकलनों की प्रकृति-कविताएँ समतल के नगर-निवास-काल में (मुख्यतः प्रयाग में) रची गई हैं
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1.    गंधवीथी, सुमित्रानंदन पंत, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1973

 जहाँ न मखमली कालीन-सी कत्यूर की घाटी थी, न कूर्मांचल-कौसानी की छाया-प्रकाश-वीथी-सी रुपहली वनानी और न शुभ्र राजमराल सा उद्ग्रीव हिमशिखर था। इस प्रकार पंत के ‘प्रकृति-विहारी’ रूप की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति वीणा में ही हो सकी है, जहाँ प्राकृतिक दृश्यों की ताज़गी सहज उल्लास के साथ मूर्तिमान है। बाद में इनकी प्रकृति-कविताएँ अधिकतर ‘दर्शन-सम्मिश्र’ हो गई हैं और प्रकृति के मलीमस रूप से प्रायः दूर ही रही हैं द्विवेदीयुगीन प्रकृति-काव्य से छायावादी प्रकृति-काव्य को अलग करने वाले जितने लक्षण हैं, उनका सबसे अधिक विकास इनकी प्रकृति-कविताओं में ही हुआ है प्रकृति सौन्दर्य की ‘अभिधा’ को अतिक्रांत कर उसकी सूक्ष्म-सुंदर व्यंजना को एक उन्नत स्तर और नूतन अर्थ-संदर्भ प्रदान करने की दृष्टि से हिन्दी काव्येतिहास में इनका अद्वितीय स्थान है। ‘‘यदि यह कहना सच है कि छायावाद का प्रकृति-काव्य आधुनिक हिन्दी कविता का सर्वोच्च प्रकृति-काव्य है, तो हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि छायावादी प्रकृति काव्य को सर्वोच्च बनाने का सर्वाधिक श्रेय सुमित्रानंदन पंत को ही है।’’2

नई शताब्दी के नवोन्मेष के संस्कारों को लोकर पंत जी की प्राकृतिक सुषमा के अतुल भाण्डार की तल्ली कौसानी (हच्छीना) के निवासी और नॉर्मन ट्रुप नामक अँगरेज के ‘कौसानी टी स्टेट’ के खजांची तथा बाद में मैनेजर गंगादत्त पंत तथा माता  सरस्वती देवी (सरुल्ली) के घर में 20 मई, सन् 1900 ईस्वी (रविवार) को पैदा हुए थे। कूर्मांचल के इस सुदूर पहाड़ी प्रांतर कत्यूर में इस पंत-परिवार के पुरखे लगभग तीन शताब्दी पहले किसी युद्ध के प्रसंग में परिव्रजन करते हुए महाराष्ट्र से कूर्मांचल आकर यहीं बस गए थे। पंत जी को अपने माता-पिता के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो महाकाव्यों में से एक महाकाव्य लोकायतन अपने पूज्य पिता को और दूसरा महाकाव्य सत्यकाम अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गईं, समर्पित किया है। अपनी माँ सरस्वती देवी (पीहर का पुकारू नाम ‘सरुली’) को स्मरण करते हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य सत्यकाम जिन शब्दों के साथ उन्हें समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं—

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1.    इस प्रसंग में पंत जी ने स्वयं लिखा है—‘‘वीणा की विस्मय-भरी रहस्य-प्रिय बालिका अधिक मांसल, सुरुचि सुरंगपूर्ण बनकर, प्रायः मुग्धा युवती का हृदय पाकर, जीवन के प्रति अधिक संवेदनशील होकर, पल्लव में प्रकट हुआ है। इस प्रकार प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर ही मैं काव्य के भाव-विशद सौन्दर्य-प्रसाद में प्रवेश पा सका।’’
रश्मिबंध, सुमित्रानन्दन पंत, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1958, ‘परिदर्शन’,  पृष्ठ 5.
2 गंधवीथी (सुमित्रानन्दन पंत) की भूमिका, लेखक: डॉ. कुमार विमल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1973, पृष्ठ 46.


मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !


पंत जी देखने में कोमल और स्वभाव से मृदुल थे, लेकिन इनके भीतर एक ‘इस्पाती व्यक्तित्व’ था। ये जब किसी का खंडन करते थे, तब उसके रग-रेशे निकाल देते थे। यह इनके ‘इस्पाती व्यक्तित्व’ का ही प्रतिफलन था कि यों बड़े-बड़े प्रभावशाली व्यक्तियों के मंतव्यों को खंडित करने में कठोर और अपने विचारों को प्रतिपादित करने में दृढ़ बने रहते थे। इनके ‘खंडन-कुठार’ का शिकार महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे समादृत आचार्य को भी वीणा की अप्रकाशित भूमिका (अब ‘विज्ञप्ति’ शीर्षक से प्रकाशित शिल्प और दर्शन नामक निबन्ध-संग्रह में संकलित) में बनना पड़ा था। इस ‘विज्ञप्ति’ के लेखन-काल में इनकी उम्र लगभग छब्बीस साल की रही होगी, जिसमें इन्होंने यह दृढ़ता-भरी बहादुरी कर दिखाई और निर्भीकता का यह नमूना पेश किया।

इसी तरह पल्लव की भूमिका1 (विज्ञापन), जो लगभग पच्चीस साल की उम्र में पहली मार्च, सन् 1926 ईस्वीं को लिखी गई थी, बहुत विद्रोहपूर्ण है। इसमें कविता से संबंधित कई परम्परागत और सुपरिचित मान्यताओं को धराशायी कर दिया गया है। पल्लव के ‘प्रवेश’ में पंत ने छंद-विधान से संबंधित निराला की कई धारणाओं की धज्जियाँ उड़ा दी हैं, जिनके प्रत्युत्तर-स्वरूप निराला ने ‘पंत और पल्लव’ शीर्षक अपने विस्तृत निबन्ध में पंत की अनेक धारणाओं को ध्वस्त कर दिया है। यह दूसरी बात है कि निराला ने ‘मेरे गीत और कला’ शीर्षक लेख में वर्ण-विचार की दृष्टि से पंत को ‘श-ण-व-ल’ स्कूल का कवि कहा है और स्वयं को जयदेव के समान ‘भिन्न वर्ण सौन्दर्य’ वाला कवि साबित किया है। इस विवाद के बाद निराला भी पंत-विरोधी का कोई अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देते थे। जब ‘विजनवती’ के कवि इलाचंद्र जोशी के संपादन में संगम (इलाहाबाद) का स्वर्ण जयंती अंक सन् 1950 ई. में प्रकाशित हुआ, तब निराला ने इसे एक पहाड़ी’ द्वारा दूसरे ‘पहाड़ी’ का अभिवादन कहा और संगम के उस अंक में पृष्ठ आठ पर निराला ने गद्य में पंत को जो बधाई दी, उसमें स्पर्धा, ईर्ष्या और मात्सर्य का भाव प्रच्छन्नता के साथ व्यक्त था। इस तरह इन दोनों कवियों के बीच जो दौर्मनस्य अंत-अंत तक नहीं मिट सका, उसकी विद्रूप परणति हमें लोकायतन में भ्रष्ट-दुष्ट माधो गुरु के चरित्र-चित्रण में मिलती है।
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1. जिसे छायावाद का ‘मैनिफ़ेस्टो’ कहा जाता है।



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